Dhaniya - 1 in Hindi Moral Stories by Govardhan Yadav books and stories PDF | धनिया - 1

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धनिया - 1

धनिया

गोवर्धन यादव

1

भिनसारे उठ बैठती धनिया और बाउण्ड्री वाल से चिपकर खड़ी हो जाती। उसकी खोजी नजरें, पहाड़ों की गहराइयों में अपना गाँव खोजने में व्यस्त हो जातीं। गहरे नीले-भूरे रंग के धुंधलके की चादर ताने, जंगल अब तक सो रहा था। इक्का-दुक्का चिडिय़ा फरफरा कर इस झाड़ से उड़ती और दूसरी पर जा बैठती। सोचती, आज तो कड़ाके की ठंड है। पंखों को फुलाकर वह अपने शरीर को गर्माने लगती।

काफी देर बाद सूरज उगा। उनींदा सा। अलसाया सा। थका-थका सा। पीलापन लिए हुए। जंगल में अब भी कोई हलचल नहीं हो रही थी। चारों तरफ सन्नाटा, मौत की सी खामोशी लिए पसरा पड़ा था।

सूरज अब थोड़ा ऊपर उठा। उसकी किरणों में अब तीखापन आने लगा था। धुंधलका अब पिघलने सा लगा था। तिस पर भी गांव दिखलाई नहीं पड़ा। नजरें गड़ाकर उसने यहां वहां चलने का प्रयास किया तभी धुएं की एक पतली सी रेखा आसमान की ओर उठती दिखलाई पड़ी, उसने सहज ही अन्दाजा लगा लिया कि वहीं कहीं आसपास उसका अपना गांव होगा, तभी एक बड़ी सी चील सरसराती हुई उसके करीब से गुजरी और देखते ही देखते आंखों से ओझल हो गई।

उसे अपनी मां की याद हो आयी। गर्मी के दिनों में महुआ खूब फलता था। साल भर खाने पुरता इकठ्ठा कर लेती वह। फिर आंगन में फैलाकर सुखाती और फिर एक बड़े से मंधुले में भरकर रख देती। जब चारों ओर मूसलाधार बारिश हो रही होती तो वह मिट्टी की हांडी में पकाती। बापू को दारू पीने का बड़ा शौक था, एक बड़े से मटके में महुआ सड़ाता। फिर आग पर चढ़ाकर पोंगली लगाता। गरमागरम बूंदें नली से टपाटप टपकने लगतीं। जब ढेर सारी इकठ्ठी हो जाती तो देवी-देवताओं के नाम चढ़ाना कभी नहीं भूलता।

सांझ के गहरा जाने के साथ ही चांद भी निकल आया। सब लोग धीरे-धीरे एक जगह इकठ्ठा होने लगे। बापू आले में से मटका उठा लाता। एक दोना भर दारू उसने देवता पर उड़ेला। फिर बारी-बारी से सभी स्वाद चखने लगे। बूढ़े-मरद, औरतें, यहां तक कि बच्चे भी दारू गटकते। जब सिर पर अच्छा खासा नशा सवार हो जाता तो वह टिमकी उठा लाता। कोई झांझर उठा लाता तो कोई तुरही। बापू टिमकी गजब की बजाता है। बीच-बीच में दोहरे डाले जाते और टिमकी की टिमिक-टिमिक पर सभी औरत-मर्द एक दूसरे की कमर में हाथ डाले थिरकने लग जाते। वासना से कोसों मील दूर जनजातियां इसी तरह के उत्सव मनाया करते रहती हैं।

एक दिन माँ आंगन में बैठी, महुआ सुखा रही थी, तभी बच्चों का एक हुजूम हो-हल्ला मचाता हुआ उधर से आ निकला। माँ को अकारण ही क्रोध आ जाता है। वह बच्चों को मारने दौड़ पड़ती है। इस अप्रत्याशित घटना से भीड़ बिदक जाती है। बच्चे तितर-बितर होकर पहाड़ उतरने लगते हैं। धनिया भी भला, पीछे रहने वाली कहां थी। वह भी भीड़ का हिस्सा बनी पहाड़ उतरने लगती है। पहाड़ उतरते समय उसे ऐसा लगता है कि वह चील बनी आकाश में उड़ रही है, उसके दोनों हाथ दाएं-बाएं फैल जाते हैं। अपने डैनों को विभिन्न मोड़ देते हुए वह पहाड़ उतरने लगती है और एक विशेष प्रकार की आवाज निकालने लगती है।

भीड़ देनवा के तट पर आकर ठहर जाती है। दूर-दूर तक फैली रेत पर बच्चे पसर जाते हैं और थकान मिटाने लगते हैं। कल्लू को पता नहीं क्या सूझा। उसने अपनी कोपिन उतार फेंकी और गहरे पानी में छलांग लगा दी। फिर क्या था देखा-देखी सब वैसा ही करने लगे।

जी भर कर तैरते-उतराते रहने के बाद लग आती भूख। दो-दो, तीन-तीन की टोलियां बनाई जातीं। टोलियां अब चारों ओर बिखर जातीं। जब वापिस होतीं तो किसी के हाथ में कंदमूल-फल होते, तो कोई महुआ ही बीन लाती। ढेर सारी खाने की चीजें इकठ्ठी हो जातीं। तब लकड़ी-कण्डा बीनने लग जाते। जब अच्छा-खासा ढेर इक्ठ्ठा हो जाता तो चकमक से आग पैदा की जाती और ढेर में लगा दी जाती। लाल-लाल दहकते अंगारों पर चीजें भूनी जाने लगतीं। भुने हुए महुए की मादक गंध से भूख और करारी हो उठती। आग खूर-खूरकर दोनों हाथों से बंदरों की तरह खाने भिड़ जाते। जब हलक तक पेट भर जाता तो प्यास सताने लगती। टिंगरा-टिंगरा पानी में उतर कर, पसो से पानी पीने लग जाते। खेल ही खेल में पता नहीं चल पाता कि सूरज सिर पर चढ़ आया है ... अब घर की याद सताने लगती। भीड़ अब अपने घरों को लौट पड़ती।

धनिया ने एक वृक्ष की ओर देखा। माँ बाहर ही बैठी हुई है। लकड़ी का टुकड़ा अब भी पास पड़ा था। आज जमकर धुनाई होगी, उसने मन ही मन सोचा। एक डर गहरे तक उतर आया जिसने उसे लगभग कंपा ही दिया। घर तो पहुँचना ही पड़ेगा, चाहे पिटाई ही क्यों न हो जाए। यह सोचते हुए वह आगे बढ़ती रही। माँ ने उसे लौटते देखा। अपनी टोकनी उठाई और आगे बढ़ गई।

धनिया को मालूम है कि माँ इस वक्त कहां जायेगी। वह सीधे खेत पहुँचेगी जहां बापू और दादू उसका इंतजार कर रहे होंगे। वह बड़ी सुबह ही खेत चले जाते हैं, खेत यही कोई ढाई तीन एकड़ का होगा, जिसमें वे हल-बख्खर चलाकर बोआई के लिए तैयार करेंगे। बापू इस बीच लकडिय़ाँ काट लेता है, कभी-कभी चार-चारोली भी इकठ्ठी कर लेता है। हाट के दिन वह इन्हें बेचेगा। धनिया भी बापू के पीछे-पीछे हाट जाती है। जब भी वह हाट जाती है, गोलू हलवाई की दुकान से गुड़ की जलेबियाँ खाना नहीं भूलती। रकम अच्छी मिली तो चूड़ी कंघा-रिबिन का भी सेजा जम जाता है अथवा एकाध फ्राक-व्राक का भी। गुड़ की जलेबी की याद आते ही उसके मुँह में मीठास घुलने लगी।

दोनों को दूर से आता देख वे खेत से निकलकर एक सघन वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताने लगते हैं। मां धीरे से अपनी पोटली खोलती है। ज्वार-बाजरा अथवा महुआ की मोटी-मोटी रोटी सभी के हाथ में पकड़ाते जाती है फिर उस पर टमाटर की चटनी अथवा बेसन या फिर प्याज हरी मिर्च व नमक रख देती है। हौले से निवाला तोड़कर वे मुंह में भरकर चबाने लगते हैं। जब पेट भर जाता है तो नारियल की नरेटी से पानी लेकर अपनी प्यास बुझाते हैं। धनिया को भूख तो थी नहीं, अत: वह ना-नुकुर करने लगती है। उसकी नजरें तो मचान से चिपकी हुई थीं, पलक झपकते ही वह मचान पर जा चढ़ी और बंदरों की सी हरकतें करने लगी। दादू ने एक मचान बना रखा था खेत में। फसल जब लहलहा रही होती है तो दादू उस पर बैठकर जागली करता है। गोफन भी चलाता है। गोफन से छूटा पत्थर बड़ी तेजी के साथ सूअर के थूथने पर पड़ता है तो वह भयंकर चीख के साथ भाग खड़ा होता है। जंगली सूअर से खेतों को ज्यादा ही नुकसान होता है। शाम ढलने से पहले सभी घर लौट आते। बैलों को कोठे में बांधकर बापू उनको चारा-पानी डालता है। फिर बाप-बेटे दोनों ओसारी में बैठकर बतियाने लगते हैं। बतियाते हुए धुक-धुक करके बीड़ी का धुआं भी उगलते जाते हैं। वैसे दादू को चिलम पीना कुछ ज्यादा ही अच्छा लगता है।

माँ आले में रखा भपका जला देती है। पीली-पीली रोशनी से झोंपड़ी नहा उठती है। अब वह चूल्हा जलाकर आटा रांधने लगती है। खाना खा चुकने के बाद सभी अपनी कथड़ी-गोदड़ी में दुबक जाते हैं। माँ भपका बुझा देती है। भपके के बुझते ही काला-कलूटा अंधियारा झोंपड़ी में घुस आता है। मां के पास ही सोती है धनिया। सोते समय खुरदरी हथेलियों से सिर को सहलाती और बालों में उंगलियां चलाती रहती। बीच-बीच में किसी जंगली जानवर का गुरगुराना तो कभी जंगल के राजा का दहाडऩा सुनाई दे जाता। शेर की दहाड़ सुनकर वह मां के सीने से चिपक जाती। मां के धड़कते दिल की आवाज उसे साफ-साफ सुनाई पड़ती। जब आदम जात का सोने का वक्त होता है जो जंगली जानवर के जागने का वक्त हो जाता है। जंगली जानवर रात में शिकार पर निकल पड़ते हैं। उनींदे से हो आए लता-वृक्ष शेर की दहाड़ सुनकर चौंक-चौंक पड़ते हैं। डरे सहमे से ये वृक्ष शायद ही अच्छी नींद में सो पाते होंगे। शेर जब ऊपर मुंह करके दहाड़ता है तो डाल पर बैठा मोर अथवा बंदर मारे डर के टपक पड़ता है। और शेर का शिकार हो जाता है। बापू ने झोंपड़ी के चारों ओर कांटों का सघन बाढ़ लगा दिया था ताकि कोई जानवर अंदर न घुस आए। बाड़ी के उस पार कभी किसी जंगली जानवर की गोल-गोल कंचे की सी आंखें चमकती दिखलाई दे जातीं। आंखें ऐसी चमकतीं जैसे अंधेरी रात में कोई हीरा जगमगा रहा हो। माँ उसे हिम्मत बंधाने की गरज से यह सब दिखाने की कोशिश करती। पर वह उसके सीने से जोर से चिपट जाया करती।

पूरा परिवार सूरज की पहली किरण के साथ ही जाग जाता। जम्हाते हुए धनिया उठ बैठती और आंखें मलते हुए प्रकृति का नजारा देखने लग जाती। लाल-पीले सुनहरे रंग से जंगल मुस्कराने लगता। पहाड़ों की उंचाइयों से उतर रही देनवा का पानी ऐसे लगता जैसे सोना पिघल कर बहा जा रहा हो।

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